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क्या बाइबल (वेद पुस्तक) साहित्यिक रूप से विश्‍वसनीय है?

परमेश्‍वर ने इतिहास में कैसे कार्य किया को वर्णित करते हुए बाइबल आत्मिक सत्यों को प्रदान करती है। यह वहाँ से आरम्भ होती है जहाँ परमेश्‍वर ने मनुष्य की सृष्टि अपने स्वरूप में की और फिर प्रथम मनुष्य का सामना किया और एक बलिदान के लिए बोला जो आने वाला था और जिसका बलिदान होगा। इसके पश्चात् ऋषि अब्राहम के पुत्र के स्थान पर एक मेढ़े के बलिदान की विशेष घटना और ऐतिहासिक फसह की घटना घटित हुई। यह प्राचीन ऋग वेद के सामान्तर चलता है जहाँ पर हमारे पापों के लिए बलिदान की मांग की गई है और यह प्रतिज्ञा दी गई है कि यह पुरूषा के बलिदान के साथ प्रगट होगा। ये प्रतिज्ञाएँ प्रभु यीशु मसीह (यीशु सत्संग) के जीवन, शिक्षाएँ, मृत्यु एवं पुनरूत्थान से पूरी हो गई। परन्तु प्रतिज्ञाएँ और पूर्णताएँ ऐतिहासिक हैं। इसलिए, यदि बाइबल को आत्मिक सत्यों को प्रदान करने के लिए सत्य होना हो तो इसे ऐतिहासिक रूप से विश्‍वसनीय भी होना चाहिए। यह हमें हमारे किए हुए प्रश्न की ओर ले जाता है : क्या बाइबल (वेद पुस्तक) साहित्यिक रूप से विश्‍वसनीय है? और कैसे कोई यह जान सकता है यह है या नहीं?

हम यह कहते हुए आरम्भ करते हैं कि कहीं समय के बीतने के साथ बाइबल का मूलपाठ (के शब्द) कहीं परिवर्तित तो नहीं हो गए हैं। जिसे साहित्यिक विश्‍वसनीयता  से जाना जाता है, यह प्रश्न इसलिए उठता है क्योंकि बाइबल अत्यधिक प्राचीन है। बहुत सी पुस्तकें हैं जिनसे मिलकर बाइबल का निर्माण हुआ है, और सबसे अन्तिम पुस्तक लगभग दो हज़ार वर्षों पहले लिखी गई थी। अधिकांश मध्यवर्ती सदियों में छपाई, फोटोकॉपी मशीन या प्रकाशन कम्पनियों की कोई सुविधा नहीं थी। इसलिए इन पुस्तकों को हाथों के द्वारा लिखा जाता था, एक पीढ़ी के पश्चात् दूसरी पीढ़ी के आने पर, भाषाएँ समाप्त होती गई और नई भाषाएँ आती गईं, साम्राज्य परिवर्तित होते गए और नई शक्तियाँ आती गईं। क्योंकि मूल पाण्डुलिपियाँ बहुत पहले ही लोप हो गई थीं, इसलिए हम कैसे यह जान सकते हैं कि आज हम बाइबल में जो कुछ पढ़ते हैं उसे वास्तव में मूल लेखकों ने ही बहुत पहले लिखा था?क्या यह जानने के लिए कोई ‘वैज्ञानिक’ तरीका है कि जिसे आज हम पढ़ते हैं वह बहुत पहले लिखे हुए मूल लेखों जैसा ही है या भिन्न है?

साहित्यिक आलोचना के सिद्धान्त

यह प्रश्न किसी भी प्राचीन लेख के लिए सत्य है। नीचे दिया हुआ आरेख उस प्रक्रिया को चित्रित करता है जिसमें अतीत के सभी प्राचीन लेखों को समय के व्यतीत होने के साथ सुरक्षित रखा जाता था ताकि हम उन्हें आज पढ़ सकें। नीचे दिया हुआ आरेख 500 ईसा पूर्व (इस तिथि को केवल एक उदाहरण को दर्शाने के लिए चुना गया है) के एक प्राचीन दस्तावेज के उदाहरण को प्रदर्शित करता है।

समयरेखा का उदाहरण यह प्रदर्शित करता है कि कैसे मूलपाठ समय में से होकर चलता है।

समयरेखा का उदाहरण यह प्रदर्शित करता है कि कैसे मूलपाठ समय में से होकर चलता है।

मौलिक रूप अनिश्चितकाल तक के लिए नहीं रहता है, इसलिए इससे पहले की यह नष्ट होने लगे, खो जाए, या नाश हो जाए, एक पाण्डुलिपि (पाण्डु लि) की प्रतिलिपि तैयार कर ली जाती है (1ली प्रतिलिपि)।अनुभवी व्यक्ति की एक श्रेणी जिन्हें शास्त्री कह कर पुकारा जाता है प्रतिलिपि को बनाने का कार्य करते हैं। जैसे जैसे समय व्यतीत होता है, प्रतिलिपियों से और प्रतिलिपि (2री प्रतिलिपि और 3री प्रतिलिपि) तैयार की जाती है। किसी समय पर एक प्रतिलिपि को संरक्षित कर लिया जाता है जो कि आज भी अस्तित्व में है (3री प्रतिलिपि)। हमारे उदाहरण दिए हुए आरेख में इस अस्तित्व में पड़ी हुई प्रतिलिपि को 500 ईसा पूर्व में बनाया हुआ दिखाया गया है। इसका अर्थ है कि जितना अधिक पहले के मूलपाठ के दस्तावेज की अवस्था को हम जानते हैं वह केवल 500 ईसा पूर्व या इसके बाद का है क्योंकि इसके पहले की सभी पाण्डुलिपियाँ लोप हो गई हैं। 500 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी सन् के मध्य के 1000 वर्ष (जिन्हें आरेख में x के चिन्ह से दिखाया गया है) वह अवधि है जिसमें हम किसी भी प्रतिलिपि की जाँच नहीं कर सकते हैं क्योंकि सभी पाण्डुलिपियाँ इस अवधि में लोप हो गई हैं। उदाहरण के लिए, यदि प्रतिलिपि बनाते समय कोई त्रुटि (अन्जाने में या जानबूझकर) हुई है जिस समय 2री प्रतिलिपि को 1ली प्रतिलिपि से बनाया जा रहा था, तो हम उसका पता  लगाने के लिए सक्षम नहीं होंगे क्योंकि इनमें से कोई भी दस्तावेज अब एक दूसरे से तुलना करने के लिए उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में उपलब्ध प्रतिलिपियों (x अवधि) की उत्पति होने से पहले की यह समयावधि इसलिए साहित्यिक अनिश्चितता का अन्तराल है। परिणामस्वरूप, एक सिद्धान्त जो साहित्यिक विश्‍वसनीयता के बारे में हमारे प्रश्न का उत्तर देता है वह यह है कि जितना अधिक छोटा यह अन्तराल x होगा उतना अधिक हम हमारे आधुनिक दिनों में दस्तावेज के सटीक रूप से संरक्षण में अपनी विश्‍वसनीयता को रख सकते हैं, क्योंकि अनिश्चयता की अवधि कम हो जाती है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है, कि आज अक्सर एक पाण्डुलिपि की एक से ज्यादा दस्तावेज की प्रतिलिपि अस्तित्व में है। मान लीजिए हमारे पास इस तरह की दो पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियाँ हैं और हम उन दोनों के एक ही भाग में इस निम्नलिखित वाक्यांश को पाते हैं (मैं इसे अंग्रेजी में उदाहरण के कारण लिख रहा हूँ, परन्तु वास्तविक पाण्डुलिपि यूनानी, लैटिन या संस्कृत जैसी भाषाओं में होगी):

कुछ पाण्डुलिपियों के साथ साहित्यिक भिन्नता

कुछ पाण्डुलिपियों के साथ साहित्यिक भिन्नता

 

मूल लेख में या तो सुरेश के बारे में लिखा है या फिर सुमेश के बारे लिखा है, और बाकी के इन अन्य पाण्डुलिपियों में प्रतिलिपि बनाते समय त्रुटि पाई जाती है। प्रश्न यह उठता है – कि इनमें से किस में त्रुटि पाई जाती है?उपलब्ध प्रमाण से इसे निर्धारित करना अत्यन्त कठिन है।

अब मान लीजिए हमने एक ही लेख की दो से अधिक पाण्डुलिपियों को प्राप्त किया है, जैसा कि नीचे दिखाया गया है:

कई पाण्डुलिपियों के साथ साहित्यिक भिन्नता

कई पाण्डुलिपियों के साथ साहित्यिक भिन्नता

 

 

अब यह तार्किक परिणाम निकालना आसान है कि किस पाण्डुलिपि में त्रुटि है। अब यह सम्भावना ज्यादा है कि त्रुटि एक बार हुई हो, इसकी अपेक्षा की एक ही जैसी त्रुटि की तीन बार पुनरावृत्ति हुई हो, इसलिए यह सम्भावना अधिक है पाण्डुलिपि #2 की प्रतिलिपि में त्रुटि हो, और लेखक सुरेश  के बारे में लिख रहा हो, न कि सुमेश के बारे में।

यह सरल उदाहरण दर्शाता है कि एक दूसरा सिद्धान्त जिसे हम पाण्डुलिपि के साहित्यिक रूप से विश्‍वसनीय होने की जाँच के लिए उपयोग कर सकते हैं वह:जितनी ज्यादा प्रचलित पाण्डुलिपियाँ हैं जो उपलब्ध हैं, उतना ही अधिक मूल लेख के शब्दों की सही त्रुटियों को पता लगाना और सही करना और निर्धारित करना आसान होता है।

पश्चिम की महान् पुस्तकों की साहित्यिक आलोचना

हमारे पास बाइबल की साहित्यिक विश्‍वसनीयता को निर्धारित करने के लिए दो संकेतक हैं:

  1. वास्तविक संकलन और प्रारम्भिक प्रचलित पाण्डुलिपि की प्रतिलिपियों के मध्य में समय को मापना, और
  2. प्रचलित पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि के सँख्या की गणना करना।

क्योंकि ये संकेतक किसी भी प्राचीन लेख के ऊपर लागू होते हैं इसलिए हम इनका उपयोग दोनों अर्थात् बाइबल और साथ ही साथ अन्य प्राचीन लेखों के ऊपर लागू कर सकते हैं, जैसा कि नीचे दी हुई तालिकाओं में दिया हुआ है।

लेखककब लिखा गयाप्रारम्भिक प्रतिलिपिसमय की अवधि#
 कैसर50 ई. पूर्व900 ई. सन्95010
प्लेटो अर्थात् अफलातून350 ई. पूर्व900 ई. सन्12507
अरस्तू*300 ई. पूर्व1100 ई. सन्14005
थियूसीडाईडस400 ई. पूर्व900 ई. सन्13008
हेरोडोटस400 ई. पूर्व900 ई. सन्13008
सैफोक्लेस400 ई. पूर्व1000 ई. सन्1400100
टाईटस100 ई. सन्1100 ई. सन्100020
पिल्नी100 ई. सन्850 ई. सन्7507

ये लेखक पश्चिमी इतिहास के प्रमुख शास्त्रीय लेखन – अर्थात् ऐसे लेख जिनका विकास पश्चिमी सभ्यता के विकास के साथ निर्मित हुआ को प्रस्तुत करते हैं। औसत दर पर, उन्हें हम तक 10-100 पाण्डुलिपियों के रूप में एक से दूसरी पीढ़ी के द्वारा पहुँचाया गया है जिन्हें मूल लेख के लिखे जाने के पश्चात् लगभग 1000 वर्षों के पश्चात् आरम्भ करते हुए संरक्षित किया गया था।

पूर्व की महान् पुस्तकों की साहित्यिक आलोचना

आइए अब हम प्राचीन संस्कृति के महाकाव्यों को देखें जो हमें दक्षिण एशिया के इतिहास और दर्शन के ऊपर बहुत अधिक समझ को प्रदान करते हैं। इन लेखों में सबसे प्रमुख महाभारत के लेख हैं, जिनमें अन्य लेखों के साथ ही, भगवद् गीता और कुरूक्षेत्र की लड़ाई का वृतान्त भी सम्मिलित है। विद्वान आंकलन करते हैं कि महाभारत का विकास इसके आज के लिखित स्वरूप में लगभग 900 ईसा पूर्व से हुआ, परन्तु सबसे से प्राचीन पाण्डुलिपि के आज भी अस्तित्व में पाए जाने वाले अंश लगभग 400 ईसा पूर्व के आसपास मूल संकलन और प्रारम्भिक प्रचलित पाण्डुलिपि से लगभग 500 वर्षों के अन्तराल को देते हुए पाए जाते हैं (संदर्भ के लिए विकी का लिंक)। हैदराबाद की उस्मानिया विश्‍वविद्यालय गर्व से कहता है कि उसके पुस्तकालय में दो पाण्डुलिपि प्रतिलिपियाँ पड़ी हुई हैं, परन्तु इन दोनों की तिथि केवल 1700 ईस्वी सन् और 1850 ईस्वी सन् है – जो कि मूल संकलन (संदर्भ लिंक) के हज़ारों वर्षों के पश्चात् की हैं। न केवल पाण्डुलिपि प्रतिलिपियाँ बाद की तिथि की हैं, अपितु यह जानकारी कि महाभारत  एक लोकप्रिय लेखन कार्य था यह इसकी भाषा और शैली में परिवर्तन की पुष्टि करता है, इसमें और प्रचलित पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि में बहुत ही उच्च श्रेणी की साहित्यिक भिन्नता पाई जाती है। विद्वान जो यह आंकलन लगाते हैं कि महाभारत में लिखी हुई साहित्यिक भिन्नता ऐसे व्यक्त करती है:

“भारत का राष्ट्रीय महाकाव्य, महाभारत, ने तो बहुत ही ज्यादा भ्रष्टता का सामना किया है। यह लगभग…250 000 पँक्तियों का है। इनमें से, कोई 26 000 पँक्तियों में साहित्यिक भ्रष्टता (10 प्रतिशत) पाई जाती है”– (गिज़लेर, एन एल और डब्ल्यू ई निक्स. बाइबल का एक सामान्य परिचय. मूडी प्रेस. 1968. पृ 367)

अन्य महान् महाकाव्य, रामायण  है, जो लगभग 400 ईसा पूर्व के आसपास संकलित हुआ था परन्तु इसकी प्रारम्भिक प्रचलित प्रतिलिपि, नेपाल से आई है, जिसकी तिथि 11 ईस्वी सन् की सदी पाई जाती है (संदर्भ लिंक) –जो मूल संकलन से लगभग 1500 वर्षों के आसपास पाई जाने वाली प्रारम्भिक प्रचलित पाण्डुलिपि में अन्तराल को देती है। रामायण की अब कई हज़ारों प्रचलित प्रतिलिपियाँ पाई जाती हैं। इनमें आपस में ही व्यापक साहित्यिक भिन्नता पाई जाती है, विशेषकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत/दक्षिण पूर्वी एशिया के मध्य में। विद्वानों ने इन साहित्यिक विभिन्नताओं के कारण इन पाण्डुलिपियों को 300 भिन्न समूहों में वर्गीकृत किया है।

नए नियम की साहित्यिक आलोचना

आइए अब हम बाइबल के लिए पाण्डुलिपि आधारित तथ्य की जाँच करें। नीचे दी हुई तालिका नए नियम की सबसे प्राचीनत्तम प्रतिलिपियों को सूचीबद्ध करती है। इनमें से प्रत्येक का एक नाम दिया गया है (अक्सर पाण्डुलिपि को खोजकर्ता के नाम के ऊपर)

पाण्डुलिपिकब लिखी गईपाण्डुलिपि की तिथिसमय की अवधि
 जॉन राएलॉन90 ई. सन्130 ई. सन्40 yrs
बोड़मेर पपाईरस90 ई. सन्150-200 ई. सन्110 yrs
चेस्टर बेट्टी60 ई. सन्200 ई. सन्20 yrs
कोड्डक्स वेटीकानुस60-90ई. सन्325 ई. सन्265 yrs
कोड्डक्स

सिनाटिक्स

60-90 ई. सन्350 ई. सन्290 yrs

नए नियम की पाण्डुलिपियाँ सँख्या में इतनी अधिक हैं कि उन सभी को एक ही तालिका में सूचीबद्ध करना अत्यन्त ही कठिन होगा। जैसा कि एक विद्वान जिसने इस विषय के ऊपर अध्ययन करने के लिए कई वर्षों के समय को व्यतीत किया ने व्यक्त किया है:

“हमारे पास आज नए नियम के अंशों की24000 पाण्डुलिपि से अधिक प्रतिलिपियों के अंश पाए जाते हैं… प्राचीन काल का कोई भी दस्तावेज इतनी अधिक सँख्या और प्रामाणिकता की पहुँच से आरम्भ नहीं होता है। इसकी तुलना में कवि होमर लिखित इलियड है जो 643 पाण्डुलिपियों के साथ दूसरे स्थान पर आज भी अस्तित्व में है।” मैक्डावेल, जे. प्रमाण जो न्याय की मांग करते हैं. 1979. पृ. 40)

ब्रिट्रिश संग्रहालय का एक अग्रणी विद्वान यह पुष्टि करता है कि:

“विद्वान एक बड़ी सीमा तक संतुष्ट हैं कि मुख्य यूनानी और रोमन लेखक अपने मूलपाठ में सच्चे थे…तौभी उनके लेखनकार्य के प्रति हमारा ज्ञान केवल कुछ थोड़ी सी ही पाण्डुलिपियों के ऊपर आधारित हैं जबकि नए नियम की पाण्डुलिपियों की गणना…हज़ारों के द्वारा हुई है” (केन्योन, एफ. जी. – ब्रिट्रिश संग्रहालय का पूर्व निदेशक – हमारी बाइबल और प्राचीन पाण्डुलिपि. 1941 पृ. 23)

और इन पाण्डुलिपियों की एक निश्चित सँख्या अत्यन्त ही प्राचीन है। मेरे पास प्रारम्भिक नए नियम के दस्तावेजों के बारे में एक पुस्तक है। इसका परिचय इस तरह से आरम्भ होता है:

“यह पुस्तक प्रारम्भिक नए नियम की 69 पाण्डुलिपियों का लिप्यंतरण…2री सदी से आरम्भ करती हुई 4थी सदी (100-300 ईस्वी सन्) के आरम्भ तक…नए नियम के मूलपाठ का लगभग 2/3 हिस्से को उपलब्ध कराती है” (पृ. सांत्वना, नए नियम की यूनानी पाण्डुलिपि के प्रारम्भिक मूलपाठ”. प्रस्तावना पृ. 17. 2001)

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि ये पाण्डुलिपियाँ आरम्भिक अवधि से निकल कर आई हैं जब सुसमाचार के अनुयायी सरकारी शक्ति में नहीं थे, अपितु इसकी अपेक्षा रोमी साम्राज्य के द्वारा तीव्र सताव के अधीन थे। यह वह अवधि थी जब सुसमाचार दक्षिण भारत, के केरल में आया, और यहाँ भी सुसमाचार के अनुयायियों के समाज के पास किसी भी तरह से सरकारी शक्ति नहीं थी जिससे की कोई राजा पाण्डुलिपियों के साथ किसी तरह की कोई चालाकी कर सकता। नीचे दिया हुआ आरेख पाण्डुलिपियों के उस अवधि को दर्शाता है जिस पर बाइबल का नया नियम आधारित है।

समयरेखा यह दिखा रही है कि नए नियम की 24000 प्रचलित पाण्डुलिपियों में से, सबसे प्रारम्भिक वाली को उपयोग आधुनिक अनुवादकों ने (उदाहरण, अंग्रेजी, नेपाली या हिन्दी) बाइबल के लिए किया है। यह कॉन्स्टेनटाईन (325 ईस्वी सन्) के समय से पहले से आई हैं जो रोम का पहला मसीही सम्राट था।

इन सभी हज़ारों पाण्डुलिपियों के मध्य में अनुमानित साहित्यिक भिन्नता केवल

“20000 में से 400 पँक्तियाँ हैं।”(गिज़लेर, एन एल और डब्ल्यू ई निक्स. बाइबल का एक सामान्य परिचय. मूडी प्रेस. 1988. पृ 366)

इस तरह से मूलपाठ इन सभी पाण्डुलिपियों से 99.5%  मेल खाता है।

पुराने नियम की साहित्यिक आलोचना

ऐसा ही कुछ पुराने नियम के साथ में है। पुराने नियम की 39 पुस्तकें 1500-400 ईसा पूर्व के मध्य में लिखी गई थीं। यह नीचे दिए हुए आरेख में दिखाई गई हैं जहाँ पर वह अवधि जिसमें मूल पुस्तकें लिखी गईं को समयरेखा के ऊपर एक दण्ड के रूप में दिखाया गया है। हमारे पास पुराने नियम की पाण्डुलिपियों की दो श्रेणियाँ हैं। पाण्डुलिपियों की पारम्परिक श्रेणी मासोरेट्टिकवादी मूलपाठ है जिन्हें लगभग 900 ईस्वी सन् में प्रतिलिपित किया गया था। तथापि 1948 में पुराने नियम की पाण्डुलिपियों की एक और श्रेणी जो इससे भी अधिक प्राचीन है – अर्थात् 200 ईसा पूर्व से है और जिसे मृतक सागर कुण्डल पत्र (मृ सा कुं पत्र) कह कर पुकारा जाता है की खोज हुई। यह दोनों पाण्डुलिपियों की श्रेणियाँ आरेख में दिखाई गई हैं। सबसे अधिक जो आश्चर्यजनक है वह यह है कि भले ही ये समय के एक लम्बे अन्तराल लगभग 1000 वर्षों का अन्तर रखती हैं, इनके मध्य में भिन्नता लगभग न के बराबर है। जैसा कि एक विद्वान ने इनके बारे में ऐसा कहा है:

‘ये[मृ सा कुं पत्र]मासोरेट्टिकवादी मूलपाठ की सटीकता की पुष्टि करते हैं…केवल कुछ ही उदाहरणों को छोड़कर जहाँ पर मृतक सागर कुण्डल पत्रों और मासोरेट्टिकवादी मूलपाठ के मध्य में वर्तनी और व्याकरण की भिन्नता पाई जाती है, ये दोनों आश्चर्यजनक रूप से एक जैसे हैं’ (ऐम. और. नॉर्टन, बाइबल की उत्पत्ति में पुराने नियम की पाण्डुलिपियाँ)

उदाहरण के लिए, जब हम इसे रामायण की साहित्यिक भिन्नता के साथ तुलना करते हैं, तो पुराने नियम के मूलपाठ का स्थायित्व बड़ी सरलता से ही उल्लेखनीय रूप में पाया जाता है।

यह समयरेखा दिखा रही है कि बाइबल के पुराने नियम की पाण्डुलिपियाँ मासोरेट्टिकवादी से मृतक सागर कुण्डल पत्र में परिवर्तित नहीं हुई हैं यद्यपि यह एक दूसरे से लगभग 1000 वर्षों के अन्तराल पर हैं ।

यह समयरेखा दिखा रही है कि बाइबल के पुराने नियम की पाण्डुलिपियाँ मासोरेट्टिकवादी से मृतक सागर कुण्डल पत्र में परिवर्तित नहीं हुई हैं यद्यपि यह एक दूसरे से लगभग 1000 वर्षों के अन्तराल पर हैं ।

सारांश: बाइबल साहित्यिक रूप से विश्‍वसनीय है

अब हम इस तथ्य से क्या सारांश निकाल सकते हैं? निश्चित रूप से कम से कम हम निष्पक्षता से यह गणना कर सकते हैं (पाण्डुलिपियों की सँख्या की मात्रा, मूल और प्रारम्भिक प्रचलित पाण्डुलिपि के मध्य में समय की अवधि, और पाण्डुलिपियों के मध्य में साहित्यिक भिन्नता का स्तर) कि बाइबल किसी भी अन्य प्राचीन लेखन कार्य की अपेक्षा बड़े उच्च स्तर में सत्यापित होती है। यह निर्णय जो हमें प्रमाणों सहित आगे की ओर बढ़ाता है अपने सर्वोत्तम रूप में निम्नलिखित अभिव्यक्ति के द्वारा प्रगट किया है:

नए नियम के अनुप्रमाणित मूलपाठ के प्रति सन्देहवादी होना शास्त्रीय प्राचीनता को अस्पष्टता में खो देना है, क्योंकि प्राचीन समयकाल के किसी भी दस्तावेज के संदर्भग्रन्थ की उतनी अच्छी पुष्टि नहीं हुई है जितनी अच्छी नया नियम की हुई है” (मोन्टागोमरी, मसीहियत का इतिहास. 1971, पृ. 29)

वह जो कुछ कह रहा है उसे तर्कयुक्त होना चाहिए, यदि हम बाइबल की साहित्यिक विश्‍वसनीयता के ऊपर सन्देह करें तब हम साथ ही उस सब का इन्कार कर देंगे जिसे हम इतिहास के बारे में सामान्य रूप से जानते हैं – और इसे किसी भी सूचित इतिहासकार ने कभी नहीं किया है। हम जानते हैं कि बाइबल का मूलपाठ कभी भी परिवर्तित नहीं हुआ है जबकि सदियाँ, भाषाएँ और साम्राज्य आए और गए जबकि प्रारम्भिक पाण्डुलिपियाँ इन सभी घटनाओं से पहले की तिथि की हैं। बाइबल एक विश्‍वसनीय पुस्तक है।