यदि एक व्यक्ति परमेश्वर से मुठभेड़ की आशा करता है तो एक प्रभावी तीर्थ किए जाना आवश्यक है। तीर्थ (संस्कृत तीर्थ) का अर्थ “स्थान को पार करना, घाट” इत्यादि है, और यह किसी भी स्थान, ग्रंथ या व्यक्ति को संदर्भित करता है जो पवित्र है। तीर्थ विभिन्न लोकों के बीच एक पवित्र चौराहा होता है जो आपस में स्पर्श करते हैं और तौभी एक दूसरे से अलग रहते हैं। वैदिक ग्रंथों में, तीर्थ (या क्षेत्र, गोपीता और महालय) एक पवित्र व्यक्ति, या पवित्र ग्रंथ को संदर्भित करता है, जो एक अस्तित्व से दूसरे अस्तित्व में परिवर्तन को जन्म दे सकता है।
तीर्थ-यात्रा तीर्थ से जुड़ी यात्रा है।
हम अपने आंतरिक स्वयं को फिर से जीवन्त और शुद्ध करने के लिए तीर्थ-यात्रा में जाते हैं, और इसलिए क्योंकि यात्रा में आध्यात्मिक गुण पाए जाते है, वैदिक ग्रंथों में इस विषय की पुष्टि होती है। वे कहते हैं कि तीर्थ-यात्रा पापों का निवारण कर सकती है। तीर्थ-यात्रा आंतरिक ध्यान यात्राओं से लेकर शारीरिक रूप से प्रसिद्ध मन्दिरों के दर्शन के लिए यात्रा करना या गंगा जैसी नदियों में स्नान करने के लिए हो सकती है, गंगा शायद सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। भारतीय परंपरा में विशेष रूप से गंगा का जल सबसे पवित्र प्रतीक है। गंगा नदी की देवी गंगा माता के रूप में प्रतिष्ठित है।
तीर्थ के रूप में गंगा जल
गंगा अपनी पूरी लंबाई में पवित्र है। देवी गंगा और उसके जीवित जल की शक्ति दैनिक अनुष्ठान, मिथकों, पूजा पद्धतियों, और मान्यता आज भी भक्ति के लिए केन्द्रीय स्थान रखते हैं। मृत्यु संबंधी कई अनुष्ठानों में गंगा जल की आवश्यकता होती है। इस प्रकार गंगा जीवित और मृत लोगों के बीच तीर्थ है। गंगा के लिए कहा जाता है कि यह तीन लोकों: स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल में बहती है, इसलिए इसे त्रिलोक-पथ-गामिनी के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार गंगा का संगम स्थल त्रिशाली (“तीन स्थान या संगम”) ही वह स्थान है जहाँ आमतौर पर श्राद्ध और विसर्जन किया जाता है। कई लोग चाहते हैं कि उनकी राख गंगा नदी में बहाई जाए।
पहाड़ों में गंगा नदी
गंगा संबंधी पौराणिक कथा
शिव, गंगाधारा या “गंगा के वाहक”, को गंगा का साथी कहा जाता है। वैदिक ग्रंथ गंगा के आगमन के विषय में शिव की भूमिका के बारे में बताते हैं। जब गंगा पृथ्वी पर उतरी, तो शिव ने उसे अपने सिर पर पकड़ने का वादा किया, ताकि उसके गिरने से पृथ्वी चकनाचूर न हो जाए। जब गंगा शिव के सिर पर गिरी, तो शिव के बालों ने उसे टुकड़ों में बाँट दिया और गंगा को सात धाराओं में तोड़ दिया, जिनमें से प्रत्येक भारत के एक भिन्न हिस्से में बहती है। इसलिए, यदि कोई गंगा नदी के लिए तीर्थ यात्रा नहीं कर सकता है, तो वह इन अन्य पवित्र धाराओं के लिए किसी एक के लिए यात्रा कर सकता है जिनके लिए माना जाता है कि वे गंगा के जैसी ही पवित्रता के अधिकार को रखती हैं: ये यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, और कावेरी नदीयाँ हैं।
गंगा के उतरने को निरंतर माना जाता है; गंगा की प्रत्येक धारा पृथ्वी को छूने से पहले शिव के सिर को छूती है। गंगा शिव की शक्ति, या ऊर्जा का तरल रूप है। तरल शक्ति होने के नाते, गंगा परमेश्वर का अवतार है, परमेश्वर का दिव्य अंश है, जो कि सभी के लिए स्वतंत्र रूप से बह रही है। पृथ्वी पर उतरने के बाद, गंगा शिव के लिए वाहन बन गई, जिसे अपने हाथों में कुंभ (बहुत सारे फूलदान) धारण करते हुए उसके वाहन (सवारी) मगरमच्छ (मकर) के ऊपर दर्शाया गया था।
गंगा दशहरा
प्रत्येक वर्ष एक त्योहार, गंगा दशहरा, गंगा संबंधी इन पौराणिक कथाओं के उत्सव को मनाने के लिए समर्पित है। यह त्योहार मई और जून में दस दिनों तक चलता रहता है, जो ज्येष्ठ माह के दसवें दिन आता है। इस दिन, स्वर्ग से पृथ्वी तक गंगा के उतरने (अवतार) के उत्सव को मनाया जाता है। गंगा या अन्य पवित्र नदियों के जल में इस दिन शीघ्रता के साथ डुबकी लगाई जाती है ताकि दस पापों (दशहरा) या दस जन्मों के पापों से छुटकारा मिल सके।
यीशु: तीर्थ आपको जीवित जल भेंट करते हैं
यीशु ने स्वयं का वर्णन करने के लिए इन्हीं अवधारणाओं का उपयोग किया है। उसने घोषणा की कि वह ‘अनन्त जीवन’ देने वाला ‘जीवन जल’ है। ऐसा उसने पाप और इच्छाओं में फंसी एक स्त्री को कहा परिणामस्वरूप हम सब को कहा जो वैसे ही अवस्था में हैं। वास्तव में, वह कह रहा था कि वह एक तीर्थ था और सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ-यात्रा जो हम कर सकते हैं, वह उसके पास आना है। इस स्त्री ने पाया कि उसके सभी पाप, सिर्फ दस नहीं, सभी के सभी सदैव के लिए एक बार में शुद्ध कर दिए गए थे। यदि आप शुद्ध करने की शक्ति के लिए गंगा जल को प्राप्त करने के लिए दूर की यात्रा करते हैं, तो यीशु द्वारा प्रस्तावित किए गए ‘जीवित जल’ को समझ जाएंगे। इस जल की प्राप्ति के लिए आपको शारीरिक यात्रा करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु जैसे इस स्त्री को पता चल गया था, आपको अपनी आन्तरिक शुद्धता के लिए आत्म-अनुभूति की यात्रा में से होकर जाना होगा इससे पहले कि यह आपको शुद्ध करे।
सुसमाचार इस मुठभेड़ को लिपिबद्ध करता है:
यीशु एक सामरी स्त्री के साथ बात करता है
र जब प्रभु को मालूम हुआ, कि फरीसियों ने सुना है, कि यीशु यूहन्ना से अधिक चेले बनाता, और उन्हें बपतिस्मा देता है।
यूहन्ना 4:1-42
2 (यद्यपि यीशु आप नहीं वरन उसके चेले बपतिस्मा देते थे)।
3 तब यहूदिया को छोड़कर फिर गलील को चला गया।
4 और उस को सामरिया से होकर जाना अवश्य था।
5 सो वह सूखार नाम सामरिया के एक नगर तक आया, जो उस भूमि के पास है, जिसे याकूब ने अपने पुत्र यूसुफ को दिया था।
6 और याकूब का कूआं भी वहीं था; सो यीशु मार्ग का थका हुआ उस कूएं पर यों ही बैठ गया, और यह बात छठे घण्टे के लगभग हुई।
7 इतने में एक सामरी स्त्री जल भरने को आई: यीशु ने उस से कहा, मुझे पानी पिला।
8 क्योंकि उसके चेले तो नगर में भोजन मोल लेने को गए थे।
9 उस सामरी स्त्री ने उस से कहा, तू यहूदी होकर मुझ सामरी स्त्री से पानी क्यों मांगता है? (क्योंकि यहूदी सामरियों के साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं रखते)।
10 यीशु ने उत्तर दिया, यदि तू परमेश्वर के वरदान को जानती, और यह भी जानती कि वह कौन है जो तुझ से कहता है; मुझे पानी पिला तो तू उस से मांगती, और वह तुझे जीवन का जल देता।
11 स्त्री ने उस से कहा, हे प्रभु, तेरे पास जल भरने को तो कुछ है भी नहीं, और कूआं गहिरा है: तो फिर वह जीवन का जल तेरे पास कहां से आया?
12 क्या तू हमारे पिता याकूब से बड़ा है, जिस ने हमें यह कूआं दिया; और आप ही अपने सन्तान, और अपने ढोरों समेत उस में से पीया?
13 यीशु ने उस को उत्तर दिया, कि जो कोई यह जल पीएगा वह फिर प्यासा होगा।
14 परन्तु जो कोई उस जल में से पीएगा जो मैं उसे दूंगा, वह फिर अनन्तकाल तक प्यासा न होगा: वरन जो जल मैं उसे दूंगा, वह उस में एक सोता बन जाएगा जो अनन्त जीवन के लिये उमड़ता रहेगा।
15 स्त्री ने उस से कहा, हे प्रभु, वह जल मुझे दे ताकि मैं प्यासी न होऊं और न जल भरने को इतनी दूर आऊं।
16 यीशु ने उस से कहा, जा, अपने पति को यहां बुला ला।
17 स्त्री ने उत्तर दिया, कि मैं बिना पति की हूं: यीशु ने उस से कहा, तू ठीक कहती है कि मैं बिना पति की हूं।
18 क्योंकि तू पांच पति कर चुकी है, और जिस के पास तू अब है वह भी तेरा पति नहीं; यह तू ने सच कहा है।
19 स्त्री ने उस से कहा, हे प्रभु, मुझे ज्ञात होता है कि तू भविष्यद्वक्ता है।
20 हमारे बाप दादों ने इसी पहाड़ पर भजन किया: और तुम कहते हो कि वह जगह जहां भजन करना चाहिए यरूशलेम में है।
21 यीशु ने उस से कहा, हे नारी, मेरी बात की प्रतीति कर कि वह समय आता है कि तुम न तो इस पहाड़ पर पिता का भजन करोगे न यरूशलेम में।
22 तुम जिसे नहीं जानते, उसका भजन करते हो; और हम जिसे जानते हैं उसका भजन करते हैं; क्योंकि उद्धार यहूदियों में से है।
23 परन्तु वह समय आता है, वरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करने वालों को ढूंढ़ता है।
24 परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करने वाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।
25 स्त्री ने उस से कहा, मैं जानती हूं कि मसीह जो ख्रीस्तुस कहलाता है, आनेवाला है; जब वह आएगा, तो हमें सब बातें बता देगा।
26 यीशु ने उस से कहा, मैं जो तुझ से बोल रहा हूं, वही हूं॥
27 इतने में उसके चेले आ गए, और अचम्भा करने लगे, कि वह स्त्री से बातें कर रहा है; तौभी किसी ने न कहा, कि तू क्या चाहता है? या किस लिये उस से बातें करता है।
28 तब स्त्री अपना घड़ा छोड़कर नगर में चली गई, और लोगों से कहने लगी।
29 आओ, एक मनुष्य को देखो, जिस ने सब कुछ जो मैं ने किया मुझे बता दिया: कहीं यह तो मसीह नहीं है?
30 सो वे नगर से निकलकर उसके पास आने लगे।
31 इतने में उसके चेले यीशु से यह बिनती करने लगे, कि हे रब्बी, कुछ खा ले।
32 परन्तु उस ने उन से कहा, मेरे पास खाने के लिये ऐसा भोजन है जिसे तुम नहीं जानते।
33 तब चेलों ने आपस में कहा, क्या कोई उसके लिये कुछ खाने को लाया है?
34 यीशु ने उन से कहा, मेरा भोजन यह है, कि अपने भेजने वाले की इच्छा के अनुसार चलूं और उसका काम पूरा करूं।
35 क्या तुम नहीं कहते, कि कटनी होने में अब भी चार महीने पड़े हैं? देखो, मैं तुम से कहता हूं, अपनी आंखे उठाकर खेतों पर दृष्टि डालो, कि वे कटनी के लिये पक चुके हैं।
36 और काटने वाला मजदूरी पाता, और अनन्त जीवन के लिये फल बटोरता है; ताकि बोने वाला और काटने वाला दोनों मिलकर आनन्द करें।
37 क्योंकि इस पर यह कहावत ठीक बैठती है कि बोने वाला और है और काटने वाला और।
38 मैं ने तुम्हें वह खेत काटने के लिये भेजा, जिस में तुम ने परिश्रम नहीं किया: औरों ने परिश्रम किया और तुम उन के परिश्रम के फल में भागी हुए॥
39 और उस नगर के बहुत सामरियों ने उस स्त्री के कहने से, जिस ने यह गवाही दी थी, कि उस ने सब कुछ जो मैं ने किया है, मुझे बता दिया, विश्वास किया।
40 तब जब ये सामरी उसके पास आए, तो उस से बिनती करने लगे, कि हमारे यहां रह: सो वह वहां दो दिन तक रहा।
41 और उसके वचन के कारण और भी बहुतेरों ने विश्वास किया।
42 और उस स्त्री से कहा, अब हम तेरे कहने ही से विश्वास नहीं करते; क्योंकि हम ने आप ही सुन लिया, और जानते हैं कि यही सचमुच में जगत का उद्धारकर्ता है॥
यीशु द्वारा पीने के लिए पानी मांगने के दो कारण थे। पहला, वह प्यासा था। परन्तु वह (एक ऋषि होने के नाते) जानता था कि स्त्री में पूरी तरह से एक भिन्न प्यास थी। वह अपने जीवन में संतुष्टि के लिए प्यासी थी। उसने सोचा कि वह भिन्न पुरुषों के साथ अवैध संबंध बनाकर इस प्यास को संतुष्ट कर सकती है। इसलिए उसके कई पति थे और यहाँ तक कि जब वह यीशु से बात कर रही थी तो वह एक ऐसे व्यक्ति के साथ रहती थी जो उसका अपना पति नहीं था। उसके पड़ोसी उसे अनैतिक मानते थे। शायद यही एक कारण रहा होगा कि वह दोपहर के समय पानी लेने के लिए अकेली गई थी क्योंकि सुबह की ताजगी में कुएं पर जाने के लिए गांव की अन्य स्त्रियाँ उसके साथ को नहीं चाहती थीं। इस स्त्री के कई पुरुष थे, और इसने उसे गाँव की अन्य स्त्रियों से अलग कर दिया था।
यीशु ने प्यास के विषय का उपयोग किया ताकि वह महसूस कर सके कि उसके पाप की जड़ उसके जीवन में एक गहरी प्यास थी – एक ऐसी प्यास जिसे बुझाया जाना था। वह उसे (और हमें) यह भी घोषित कर रहा था कि केवल वही हमारी आंतरिक प्यास को बुझा सकता है जो बड़ी आसानी से हमें पाप में ले जाती है।
विश्वास करने के लिए – सत्य का अंगीकार करना
परन्तु ‘जीवित जल’ के इस प्रस्ताव ने स्त्री को संकट में डाल दिया। जब यीशु ने उस से उसके पति को लाने के लिए कहा तो वह उद्देश्यपूर्वक उसे उसके पाप को पहचानने और – इसे स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर रहा था। हम हर कीमत पर इससे बचते हैं! हम अपने पापों को छिपाना पसंद करते हैं, यह आशा करते हुए कि इसे कोई भी नहीं देखेगा। या हम तर्क प्रस्तुत करते हुए अपने पापों के लिए बहाने बनाते हैं। परन्तु यदि हम ‘शाश्वत जीवन’ की ओर ले जाने वाले परमेश्वर की वास्तविकता का अनुभव करना चाहते हैं, तब तो हमें ईमानदार होना चाहिए और अपने पाप को स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि सुसमाचार प्रतिज्ञा करता है कि:
अगर हम बिना पाप के होने का दावा करते हैं, तो हम खुद को धोखा देते हैं और सच्चाई हममें नहीं है। 9 अगर हम अपने पापों को कबूल करते हैं, तो वह वफादार और न्यायी है और हमें हमारे पापों को माफ करेगा और हमें सभी पापों से मुक्त करेगा।
1 यूहन्ना 1:8-9
इस कारण से, जब यीशु ने सामरी स्त्री को बताया कि
24 परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करने वाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।
यूहन्ना 4:24
‘सत्य’ से उसका तात्पर्य अपने बारे में सत्य के विषय में है, अपनी गलती को छिपाने या उसके लिए बहाना बनाने के लिए प्रयास नहीं करना है। अद्भुत समाचार यह है कि परमेश्वर ‘खोज’ करता है और ऐसे आराधको से मुँह नहीं मोड़ेगा जो इस तरह की ईमानदारी के साथ आते हैं – चाहे वे कितने भी अशुद्ध क्यों न हो गए हों।
परन्तु उसके लिए अपने पाप को स्वीकार करना अत्याधिक कठिन था। बचने के लिए एक सुविधाजनक तरीका यह है कि हम अपने पाप के विषय को धार्मिक विवाद में बदल दें। संसार में सदैव से ही कई धार्मिक विवाद होते रहे हैं। उस दिन सामरियों और यहूदियों के बीच आराधना के उचित स्थान को लेकर एक धार्मिक विवाद था। यहूदियों ने कहा कि आराधना यरुशलेम में की जानी चाहिए और सामरियों ने कहा कि यह दूसरे पहाड़ पर होनी चाहिए। वार्तालाप को धार्मिक विवाद की और मोड़ देने से वह विषय को अपने पाप से दूर ले जाने की आशा कर रही थी। वह अब अपने धर्म के पीछे अपने पाप को छिपा सकती थी।
हम कितनी आसानी से और स्वाभाविक रूप से एक ही काम करते हैं – विशेषकर यदि हम धार्मिक हैं। तब हम दोष लगा सकते हैं कि दूसरे कैसे गलत हैं या हम कैसे सही हैं – जबकि पाप को अंगीकार करने की आवश्यकता को अनदेखा करते हुए।
यीशु उसके साथ इस विवाद में सम्मिलित नहीं हुआ। उसने जोर देकर कहा कि आराधना का स्थान अधिक महत्व नहीं रखता है, परन्तु जो बात महत्व रखती है वह आराधना में स्वयं के विषय में ईमानदार होना है। वह कहीं भी परमेश्वर के सामने आ सकता है (क्योंकि वह आत्मा है), परन्तु उसे ‘जीवित जल’ को प्राप्त करने से पहले ईमानदारी से आत्म-अनुभूति की आवश्यकता थी।
निर्णय जिसे हम सभी को अवश्य लेना चाहिए
इसलिए उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना था। वह एक धार्मिक विवाद के पीछे निरन्तर छिपी रह सकती है या शायद उसे छोड़ सकती है। परन्तु उसने अन्त में अपने पाप को अंगीकार करना चुन लिया – उसे स्वीकार करना चुन लिया – यहाँ तक कि वह दूसरों को बताने के लिए वापस गाँव चली गई कि यह ऋषि कैसे उसके विषय में जानता था और उसने क्या किया था। वह अब आगे के लिए और अधिक नहीं छिपी रही। ऐसा करने से वह एक ‘विश्वासी’ बन गई। उसने इससे पहले आराधना और धार्मिक अनुष्ठान किए थे, परन्तु अब वह – और उसके गाँव के लोग – ‘विश्वासी’ बन गए थे।
विश्वासी बनने के लिए केवल मानसिक रूप से सही शिक्षा के साथ सहमति होना ही नहीं होता है – यद्यपि यह महत्वपूर्ण है। अपितु यह इस विश्वास के बारे में है कि उसकी दया की प्रतिज्ञा पर भरोसा किया जा सकता है, और इसलिए अब आपको और आगे के लिए पाप को छिपाने की आवश्यकता नहीं है। यही कुछ अब्राहम ने हमारे लिए बहुत पहले आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया था – उसने एक प्रतिज्ञा पर भरोसा किया।
क्या आप बहाना बनाते हैं या अपने पाप को छिपाते हैं? क्या आप इसे भक्तिपूर्ण धार्मिक अभ्यास या धार्मिक विवाद के साथ छिपाते हैं? या क्या आप अपने पाप को अंगीकार करते हैं? क्यों न हम हमारे सृष्टिकर्ता के सामने आएँ और ईमानदारी से अपने पाप को अंगीकार करें जो दोष और शर्म को उत्पन्न कर रहा है? तब आनन्दित हो जाए कि वह आपकी आराधना को चाहता है और आपको सारे अधर्म से भी ‘शुद्ध’ करेगा।
अपनी आवश्यकता के प्रति स्त्री की ईमानदारी से भरी हुई स्वीकृति ने मसीह को ‘मसीहा’ के रूप में समझने के लिए प्रेरित किया और यीशु के द्वारा दो दिन और अधिक वहाँ रहने के बाद उन्होंने उसे ‘संसार का उद्धारकर्ता’ जान लिया। शायद हम अभी तक इसे पूरी तरह से नहीं समझते हैं। परन्तु जैसा कि स्वामी यूहन्ना ने लोगों को उनके पाप को अंगीकार करने और उससे छुटकारे की आवश्यकता के लिए तैयार किया था, यह हमें इस बात को पहचानने के लिए तैयार करेगा कि हम कैसे खोए हुए हैं और कैसे उससे जीवित जल को पीते हैं।