भारतीय समुदाय में मूसा सम्बन्धी तानेबाने के भीतर एक छोटे से समाज को निर्मित करने के द्वारा, हजारों वर्षों से यहाँ रहते हुए, यहूदियों का भारत में एक लम्बा इतिहास है। अन्य अल्पसँख्यक समूहों से भिन्न (जैसे कि जैन, सिक्ख और बौद्ध धर्मावलम्बियों), यहूदी मूल रूप से अपनी जन्मभूमि को छोड़ते हुए भारत में बाहर से आए थे। 2017 की गर्मियों में भारतीय प्रधान मंत्री मोदी की इस्राएल में की गई ऐतिहासिक यात्रा से ठीक पहले इस्राएल के प्रधानमन्त्री उन्होंने नेतन्याहू के साथ एक संयुक्त सह-लेखन को लिखा। जब उन्होंने निम्न कथन को लिखा तब उन्होंने भारत से यहूदियों के होने वाले देशान्तर गमन को स्वीकार किया है:
भारत में यहूदी समुदाय का सदैव गर्मजोशी और सम्मान के साथ स्वागत किया गया और इसने कभी भी किसी भी तरह के उत्पीड़न का सामना नहीं किया है।
वास्तव में, यहूदियों के द्वारा भारत के इतिहास ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा है, जो भारतीय इतिहास में एक हठी रहस्य को समाधान प्रदान करता है – भारत में लेखन कला कैसे विकसित हुई जैसे कि इसे आज लिखा जाता है? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय संस्कृति के सभी शास्त्रीय लेखन कार्यों को प्रभावित करता है।
भारत में यहूदी इतिहास
यहूदी समुदाय भारत में कितने समय से रह रहा है? द टाइम्स ऑफ इस्राएल समाचार पत्र ने अभी हाल ही में एक लेख को प्रकाशित किया है, जिसमें कहा गया है कि ’27 सदियों ‘के पश्चात् मनश्शे (बेन मनश्शे ) के गोत्र के लोग मिजोरम के भारतीय राज्य से इस्राएल वापस लौट रहे हैं। यह उन्हें उनके पूर्वजों को यहाँ पर मूल रूप से 700 ईसा पूर्व में पहुँचने की पुष्टि करता है। आंध्रा प्रदेश में रहने वाले एप्रैम के यहूदी गोत्र के तेलुगू-भाषी उनके भाई-बहन (बेन एप्रैम) की भी 1000 वर्षों से अधिक समय तक भारत में होने की सामूहिक स्मृति पाई जाती है, जो फारस, अफगानिस्तान, तिब्बत और इसके पश्चात् चीन में से भटकते हुए यहाँ पहुँचे थे। केरल के राज्य में, कोचीन के यहूदी यहाँ पर लगभग 2600 वर्षों से रह रहे हैं। सदियों के बीतने के पश्चात् उन्होंने स्वयं को छोटे परन्तु पूरे भारत में विशेष समुदायों में निर्मित कर लिया था। परन्तु अब वे इस्राएल वापस लौटने के लिए भारत को छोड़ रहे हैं।
यहूदी कैसे भारत में रहने के लिए आ गए? वे इतने लम्बे समय के पश्चात् इस्राएल वापस क्यों लौट रहे हैं? हमारे पास उनके इतिहास के बारे में किसी भी अन्य जाति से कहीं अधिक तथ्य पाए जाते हैं। हम इन जानकारियों का उपयोग समय रेखा में उनके इतिहास को सारांशित करते हुए करेंगे।
अब्राहम : यहूदी परिवार के वंश का आरम्भ होना
समय रेखा अब्राहम से आरम्भ होती है। उसे उसके वंश में से जातियों की एक प्रतिज्ञा दी गई थी और उसकी मुठभेड़ परमेश्वर को उसके पुत्र इसहाक के प्रतीकात्मक बलिदान के साथ अन्त होती है। यह बलिदान यीशु (यीशु सत्संग) की ओर संकेत करता हुआ एक चिन्ह भविष्य के उस स्थान को चिन्हित करते हुए था जहाँ पर उसका बलिदान होगा। इसहाक के पुत्र का नाम परमेश्वर के द्वारा इस्राएल रखा गया। यह समय रेखा हरे रंग में आगे बढ़ती है जब इस्राएल की सन्तान को मिस्र में दासत्व के बन्धन में आई थी। यह अवधि उस समय आरम्भ होती है, जब इस्राएल का पुत्र यूसुफ (वंशावली यह थी : अब्राहम -> इसहाक -> इस्राएल (जिसे याकूब भी जाना गया था) -> यूसुफ), इस्राएलियों को मिस्र में ले गया, जब वे लोग बाद में दास बन गए।
मूसा : परमेश्वर की अधीनता में इस्राएल एक राष्ट्र बन गया
मूसा ने इस्राएलियों को फसह की विपत्ति के साथ मिस्र से बाहर निकलने में मार्गदर्शन दिया, जिसने मिस्र को नष्ट कर दिया था और इस्राएलियों को मिस्र में मिस्रियों के हाथों बाहर निकल जाने में सहायता प्रदान की थी। मूसा की मृत्यु से पहले, मूसा ने इस्राएलियों के ऊपर आशीषों और श्रापों की घोषणा की (जब समय रेखा हरे रंग से पीले रंग की ओर जाती है)। उन्हें तब आशीष मिलेगी जब वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी रहते हैं, परन्तु यदि वे आज्ञाकारी नहीं रहते तो श्राप का अनुभव करेंगे। ये आशीषें और श्राप इस्राएल के बाद के इतिहास के साथ भी बँधी हुई थीं।
हजारों वर्षों तक इस्राएली अपनी जन्म भूमि के ऊपर रहे परन्तु उनके पास अपना कोई भी राजा नहीं था, न ही यरूशलेम जैसी कोई राजधानी उनके पास थी – यह उस समय अन्य लोगों के पास थी। तथापि, इसमें 1000 ईसा पूर्व राजा दाऊद के आने के पश्चात् परिवर्तन हो गया।
दाऊद यरूशलेम में एक शाही राजवंश की स्थापना करता है
दाऊद ने यरूशलेम को जीत लिया और इसे अपनी राजधानी बना लिया। उसने ‘मसीह’ के आगमन की प्रतिज्ञा को प्राप्त किया और उस समय से यहूदी लोग मसीह के आगमन के लिए प्रतीक्षारत् हैं। उसके पुत्र सुलैमान, बिना किसी सन्तुष्टि के परन्तु धनी और प्रसिद्ध, उसका उत्तराधिकारी हुआ और सुलैमान ने यहूदियों के पहले मन्दिर को यरूशलेम में मोरिय्याह पहाड़ के ऊपर निर्मित किया। राजा दाऊद के वंशज् निरन्तर लगभग 400 वर्षों तक राज्य करते रहे और इस अवधि को हल्के-नीले रंग (1000 – 600 ईसा पूर्व) से दर्शाया गया है। यह अवधि इस्राएल की उन्नति का समय था – उनके पास प्रतिज्ञा की हुई आशीषें थीं। वे एक शक्तिशाली जाति थे; उनके समाज, संस्कृति और उनका मन्दिर उन्नत था। परन्तु पुराना नियम साथ ही उनमें बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार और इस समय होने वाली मूर्ति पूजा का भी विवरण देता है। इस अवधि में बहुत से भविष्यद्वक्ताओं ने इस्राएलियों को चेतावनी दी कि यदि वे मन परिवर्तन नहीं करते, तो उनके ऊपर मूसा के श्राप आप पड़ेंगे। इन चेतावनियों को अनदेखा कर दिया गया। इस समय के मध्य में इस्राएली दो पृथक राज्यों : इस्राएल और एप्रैम का उत्तरी राज्य और यहूदा के दक्षिण राज्य में विभाजित हो गए (जैसे कि आज के समय कोरिया है, एक ही लोग दो देशों में विभाजित हो गए हैं – उत्तरी ओर दक्षिण कोरिया)।
यहूदियों की पहली बन्धुवाई : अश्शूर और बेबीलोन
अन्त में, दो चरणों में श्राप उनके ऊपर आ पड़ा। अश्शूर ने एप्रैम के उत्तरी राज्य को 722 ईसा पूर्व में नष्ट कर दिया और इसमें रहने वाले इस्राएलियों को बड़े पैमाने पर अपने विस्तृत साम्राज्य में भेज दिया गया। मिजोरम के बेन मनश्शे और आन्ध्रा प्रदेश के बेन एप्रैम इन्हीं निर्वासित किए हुए इस्राएलियों के वंशज् हैं। तब 586 ईसा पूर्व में नबूकदनेस्सर, बेबीलोन का एक शक्तिशाली राजा आया – ठीक वैसे ही जैसे मूसा ने 900 वर्षों पहले भविष्यद्वाणी की थी, जब उसने अपने इन श्रापों को लिखा था:
यहोवा तेरे विरूद्ध दूर से, वरन् पृथ्वी के छोर से वेग से उड़नेवाले उकाब सी एक जाति को चढ़ा लाएगा जिसकी भाषा तू नहीं समझेगा; उस जाति के लोगों का व्यवहार क्रूर होगा, वे न तो बूढ़ों का मुँह देखकर आदर करेंगे, और न बालकों पर दया करेंगे; और वे तेरे पशुओं के बच्चे और भूमि की उपज यहाँ तक खा जाएँगे कि तू नष्ट हो जाएगा; और वे तेरे लिये न अन्न, और न नया दाखमधु, और न टटका तेल, और न बछड़े, न मेम्ने छोड़ेंगे, यहाँ तक कि तू नष्ट हो जाएगा। और वे तेरे परमेश्वर यहोवा के दिये हुए सारे देश के सब फाटकों के भीतर तुझे घेर रखेंगे; वे तेरे सब फाटकों के भीतर तुझे उस समय तक घेरेंगे, जब तक तेरे सारे देश में तेरी ऊँची ऊँची और दृढ़ शहरपनाहें जिन पर तू भरोसा करेगा गिर न जाएँ। (व्यवस्थाविवरण 28:49-52)
नबूकदनेस्सर ने यरूशलेम को जीत लिया, इसे जला दिया और इसके उस मन्दिर को नष्ट कर दिया जिसे सुलैमान ने निर्मित किया। उसने तब इस्राएलियों को बेबीलोन में बन्धुवा बना लिया। इसने मूसा के इस भविष्यद्वाणी को पूरा कर दिया कि
और जैसे अब यहोवा को तुम्हारी भलाई और बढ़ती करने से हर्ष होता है, वैसे ही तब उसको तुम्हारा नाश वरन् सत्यानाश करने से हर्ष होगा; और जिस भूमि के अधिकारी होने को तुम जा रहे हो उस पर से तुम उखाड़े जाओगे। और यहोवा तुझ को पृथ्वी के इस छोर से लेकर उस छोर तक के सब देशों के लोगों में तित्तर बित्तर करेगा; और वहाँ रहकर तू अपने और अपने पुरखाओं के अनजान काठ और पत्थर के दूसरे देवताओं की उपासना करेगा। (व्यवस्थाविवरण 28:63-64)
केरल के कोचीन के यहूदी बन्धुवाई में रहने वाले इन्हीं इस्राएलियों के वंशज् हैं। क्योंकि 70 वर्षों से, इस अवधि को लाल रंग से दिखाया गया है, ये इस्राएलियों (या यहूदी जैसा कि अब इन्हें पुकारा जाता है) निर्वासन में अब्राहम और उसके वंशज् को प्रतिज्ञा की हुई भूमि से दूर रह रहे थे।
भारतीय समाज को यहूदी का योगदान
हम लेखन कार्य के प्रश्न पर ध्यान देते हैं, जो भारत में प्रगट हुआ। भारत की आधुनिक भाषाओं में हिन्दी, बंगाली, मराठी, गुजराती, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तमिल के साथ-साथ प्राचीन संस्कृत जिस में ऋग्वेद और अन्य शास्त्रीय साहित्य को ब्राह्मी लिपि में वर्गीकृत किया गया था क्योंकि ये सभी एक पैतृक लिपि से आती हैं। जिसे ब्राह्मी लिपि के रूप में जाना जाता है। ब्राह्मी लिपि आज केवल सम्राट अशोक के काल के कुछ प्राचीन स्मारकों में देखने को मिलती है।
अशोक स्तंभ पर ब्राह्मी लिपि (250 ईसा पूर्व)
यद्यपि यह समझा जाता है कि ब्राह्मी लिपि इन आधुनिक लिपियों में कैसे परिवर्तित हुई, तथापि यह स्पष्ट नहीं है कि भारत ने ब्राह्मी लिपि को कैसे अपनाया। विद्वानों ने ध्यान दिया है कि ब्राह्मी लिपि इब्रानी-फ़ोनीशियाई वर्णमाला आधारित लिपि से संबंधित है, यह ऐसी लिपि थी जिसका उपयोग इस्राएल के यहूदियों द्वारा उनके निर्वासन और भारत में उनके प्रवास काल के समय में किया जाता था। इतिहासकार डॉ. अविगदोर शचान(1) यह प्रस्तावित करते है कि निर्वासित इस्राएली जो भारत में आकर बस गए थे, वे इब्रानी-फ़ोनीशियाई वर्णमाला को अपने साथ लेकर आए थे – जो बाद में ब्राह्मी लिपि बन गई। इससे ब्राह्मी लिपि का नाम कैसे पड़ा, इसका रहस्य भी सुलझ जाता है। क्या यह मात्र संयोग है कि ब्राह्मी लिपि उत्तर भारत में उसी समय दिखाई देती है जब यहूदी अपनी पैतृक भूमि, अब्राहम की भूमि से निर्वासित होकर यहां आकर बस गए थे? अब्राहम के वंशजों की लिपि को अपनाने वाले मूल निवासियों ने इसे (अ) ब्राह्मण लिपि कहा है। अब्राहम का धर्म एक ईश्वर में विश्वास करना था जिसकी भूमिका सीमित नहीं है। वह प्रथम, अन्तिम और अनन्त है। शायद यही वह स्थान है, जहाँ ब्राह्मण में विश्वास से ब्राह्मण लोगों के धर्म (अ) का आरम्भ हुआ। यहूदियों द्वारा, अपनी लिपि और धर्म को भारत में लाने से, उन आक्रमणकारियों की तुलना में जिन्होंने उन्हें जीतना और उन पर शासन करना चाहा था, अपने विचार और इतिहास को और अधिक मौलिक रूप से आकार प्रदान किया। और इब्रानी वेद, मूल रूप से इब्रानी-फ़ोनीशियाई/ब्राह्मी लिपि में, एक आने वाले पुरूष के विषय में बात करते हैं, जो कि संस्कृत ऋग्वेद में सामान्य रूप से आने वाले पुरूष के विषय में मिलता है। परन्तु हम उनकी पैतृक भूमि से उनके निर्वासन के बाद मध्य पूर्व में यहूदियों के इतिहास पर लौटते हैं।
फारसियों की अधीनता में बन्धुवाई से वापस लौटना
इसके पश्चात्, फारसी सम्राट कुस्रू ने बेबीलोन को जीत लिया और कुस्रू संसार का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन गया। उसने यहूदियों को उनकी भूमि के ऊपर वापस लौटने की अनुमति प्रदान की।
तथापि वे अब और अधिक आगे को एक स्वतंत्र देश नहीं थे, वे अब फारसी साम्राज्य के एक प्रान्त के रूप में थे। ऐसी स्थिति लगभग 200 वर्षों तक बनी रही और इसे समय रेखा में गुलाबी रंग से दिखाया गया है। इस समय में यहूदियों का मन्दिर (जिसे 2रे मन्दिर के रूप में जाना जाता है) और यरूशलेम के मन्दिर को पुनः निर्मित किया गया। यद्यपि यहूदियों को इस्राएल में वापस लौटने की अनुमति प्रदान कर दी गई, तथापि, उन में से बहुत से बन्धुवाई में ही रह गए।
यूनानियों का समयकाल
सिकन्दर महान् ने फारसी साम्राज्य को जीत लिया और इस्राएल को आगे के लगभग 200 वर्षों के लिए यूनानी साम्राज्य का एक प्रान्त बना दिया। इसे गहरे नीले रंग से दिखाया गया है।
रोमियों का समयकाल
इसके पश्चात् रोमियों ने यूनानी साम्राज्य को पराजित कर दिया और वे प्रमुख विश्व शक्ति बन गए। इस साम्राज्य में यहूदी एक बार फिर से एक प्रान्त बन गए और इसे हल्के पीले रंग से दिखाया गया है। यह वह समय था जब यीशु इस पृथ्वी पर रहा। यह विवरण देता है, कि क्यों सुसमाचारों में रोमी सैनिक पाए जाते हैं – क्योंकि रोमियों के द्वारा इस्राएलियों की भूमि पर रहने वाले यहूदियों के ऊपर यीशु के समय में शासन किया जाता था।
रोमियों की अधीनता में यहूदियों का दूसरी बार निर्वासित होना
बेबीलोनियों के समय लेकर (586 ईसा पूर्व) यहूदी कभी उस तरह से स्वतंत्र नहीं रहे जिस तरह से वे राजा दाऊद की अधीनता में थे। वे एक के बाद दूसरे साम्राज्य के अधीन शासित हुए, ठीक वैसे ही जैसा कि भारत के ऊपर बिट्रेन का शासन रहा है। यहूदियों को इसके प्रति बुरा लगा और उन्होंने रोमी शासन के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। रोमी आए और उन्होंने यरूशेलम को (70 ईस्वी सन्) में नष्ट कर दिया, इसके 2रे मन्दिर को जला दिया गया और यहूदियों को रोमी साम्राज्य में दासों के रूप में निर्वासित कर दिया गया। यह यहूदियों का दूसरी बार बन्धुवाई में जाना हुआ था। क्योंकि रोम बहुत बड़ा था, परिणामस्वरूप यहूदी अन्त में पूरे संसार में ही बिखर गए।
और इस तरह से यहूदी लोग अतीत के लगभग 2000 वर्षों रहे हैं: विदेशी भूमि पर बिखरे हुए और उन्हें कभी भी इस भूमि पर स्वीकार नहीं किया गया। इन विभिन्न देशों में उन्होंने निरन्तर बड़े सतावों से दु:ख उठाया है। यहूदियों के ऊपर आया हुआ सताव यूरोप के संदर्भ में विशेष रूप से सच्चा है। पश्चिमी यूरोप में, स्पेन से लेकर रूस तक यहूदियों को इन देशों में अक्सर खतरनाक परिस्थितियों में रहना पड़ा है। इन सतावों से बचने के लिए यहूदी निरन्तर कोचीन में पहुँचते रहे। 17वीं व 18वीं सदी में भारत के अन्य भागों में मध्य पूर्वी देशों से यहूदियों का आगमन हुआ और उन्हें बगदादी यहूदी के रूप में पहचाना गया, जो मुख्य रूप से मुम्बई, दिल्ली और कोलकाता में बस गए थे। 1500 ईसा पूर्व मूसा के द्वारा दिए हुए श्राप उनके विवरणों के अनुरूप है, कि कैसे उन्होंने जीवन को यापन किया था।
और उन जातियों में तू कभी चैन न पाएगा, और न तेरे पाँव को ठिकाना मिलेगा; क्योंकि वहाँ यहोवा ऐसा करेगा कि तेरा हृदय काँपता रहेगा, और तेरी आँखे धुँधली पड़ जाएँगी, और तेरा मन व्याकुल रहेगा (व्यवस्थाविवरण 28:65)
इस्राएलियों के विरूद्ध दिए हुए श्राप लोगों को यह पूछने के लिए दिए गए थे :
और सब जातियों के लोग पूछेंगे: “यहोवा ने इस देश से ऐसा क्यों किया? और इस बड़े कोप के भड़कने का क्या कारण है? (व्यवस्थाविवरण 29:24)
और इसका उत्तर यह था :
तब लोग यह उत्तर देंगे, “उनके पूर्वजों के परमेश्वर यहोवा ने जो वाचा उनके साथ मिस्र देश से निकालने के समय बाँधी थी उसको उन्होंने तोड़ा है। और पराए देवताओं की उपासना की है जिन्हें वे पहिले नहीं जानते थे, और यहोवा ने उनको नहीं दिया था; इसलिये यहोवा का कोप इस देश पर भड़क उठा है, कि पुस्तक मे लिखे हुए सब शाप इस पर आ पडें; और यहोवा ने कोप, और जलजलाहट, और बड़ा ही क्रोध करके उन्हें उनके देश में से उखाड़कर दूसरे देश में फेंक दिया, जैसा कि आज प्रगट है।” (व्यवस्थाविवरण 29:25-28)
नीचे दी हुई समय रेखा इस 1900 वर्षों की अवधि को दर्शाती है। इस अवधि को लाल रंग की मोटी रेखा से दर्शाया गया है।
आप देख सकते हैं, कि उनके इतिहास में यहूदी लोग बन्धुवाई की दो अवधियों में से होकर निकले परन्तु दूसरी बन्धुवाई पहली बन्धुवाई से अधिक लम्बी समय की थी।
20वीं सदी का नरसंहार
यहूदियों के विरूद्ध सताव अपने चरम पर तब पहुँचा जब हिटलर ने, नाजी जर्मनी के द्वारा, यूरोप में रहने वाले सभी यहूदियों को पूर्ण रीति से नष्ट करने का प्रयास किया। वह लगभग सफल भी हो गया था परन्तु उसकी पराजय हो गई और यहूदियों में से थोड़े से बचे रह गए।
आधुनिक इस्राएल की पुन: – स्थापना
मात्र इस तथ्य ने, कि ऐसे लोग, जो स्वयं को ‘यहूदियों’ के रूप में पहचानते हुए हजारों वर्षों के पश्चात् भी बिना किसी भी जन्म भूमि के अस्तित्व में हैं, अपने आप में ही उल्लेखनीय था। परन्तु इसने 3500 वर्षों पहले मूसा के द्वारा लिखे हुए वचनों को सत्य प्रमाणित कर दिया। 1948 में यहूदियों नें, संयुक्त राष्ट्र के द्वारा इस्राएल के आधुनिक देश के रूप में पुन: स्थापित होते हुए देखना अपने आप में ही उल्लेखनीय था, ठीक वैसे ही जैसे मूसा ने सदियों पहले लिखा था:
तब तेरा परमेश्वर यहोवा तुझ को बन्धुआई से लौटा ले आएगा, और तुझ पर दया करके उन सब देशों के लोगों में से जिनके मध्य में वह तुझ को तित्तर बित्तर कर देगा फिर इकट्ठा करेगा। चाहे धरती के छोर तक तेरा बरबस पहुँचाया जाना हो, तौभी तेरा परमेश्वर यहोवा तुझ को वहाँ से ले आकर इकट्ठा करेगा। और तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे उसी देश में पहुँचाएगा जिसके तेरे पुरखा अधिकारी हुए थे, और तू फिर उसका अधिकारी होगा; और वह तेरी भलाई करेगा, और तुझ को तेरे पुरखाओं से भी गिनती में अधिक बढ़ाएगा। (व्यवस्थाविवरण 30:3-5)
बड़े विरोध के पश्चात् भी इस देश की स्थापना स्वयं में ही उल्लेखनीय है। इसके चारों ओर के अधिकांश देशों ने इस्राएल के विरूद्ध 1948 विरूद्ध… इसके पश्चात् 1956 में … इसके पश्चात् 1967 में और एक बार फिर से 1973 में युद्ध छेड़ा था। इस्राएल एक बहुत ही छोटा सा देश है, जो कई बार एक ही समय में पाँच देशों के साथ युद्ध कर रहा होता था। इतने पर भी, इस्राएल न केवल बचा रहा, अपितु इसका क्षेत्रफल भी बढ़ता चला गया। 1967 के युद्ध में इस्राएल ने यरूशलेम को प्राप्त किया, जो उनकी दाऊद के द्वारा लगभग 3000 वर्षों पहले स्थापित की हुई ऐतिहासिक राजधानी थी। इस्राएल के देश की स्थापना, और उन युद्धों के परिणामों ने आज के हमारे संसार में सबसे कठिन राजनैतिक समस्याओं को जन्म दिया है।
जैसा कि मूसा के द्वारा भविष्यद्वाणी की गई थी और जिन्हें यहाँ पर विस्तार सहित देखा जा सकता, इस्राएल की पुन: स्थापना इस्राएल की ओर लौटने के लिए भारत में रहने वाले विभिन्न यहूदियों के लिए एक प्रोत्साहन को उत्पन्न करता है। इस समय इस्राएल में 80,000 ऐसे यहूदी रहते हैं, जिनका एक अभिभावक भारत से है और भारत में अब केवल 5000 यहूदी ही शेष रह गए हैं। जहाँ तक मूसा की आशीषों का संदर्भ है, उन्हें बहुत ही “दूर के देशों” से इकट्ठा” किया जा रहा है (जैसे कि मिजोरम) और उन्हें “वापस” लाया जा रहा है। इसके निहितार्थ यहूदियों और गैर-यहूदियों दोनों के लिए यहाँ पर प्रकाश डालते हुए एक दूसरे के तुल्य ही हैं।