एक धार्मिक जीवन चार अवस्थाओं (आश्रमों) में विभाजित होता है। एक व्यक्ति के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के लिए आश्रमों/आश्रम लक्ष्यों की प्राप्ति, जीवन के लिए योगदान और गतिविधियाँ उपयुक्त हैं। जीवन को विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित करने से, आश्रम धर्म, शरीर, मन और भावनाओं के अनुरूप चार प्रगतिशील चरणों में से होकर निकलता है। सहस्राब्दियों पहले इसे विकसित किया गया था और धर्म शास्त्रों के नाम से जाने वाले धर्मग्रंथों में विस्तार से बताया गया है कि हमारे कर्तव्यों में भिन्नता पाई जाती है, क्योंकि हम युवावस्था से प्रौढ़वस्था, ज्येष्ठ आयु के और वृद्धावस्था तक आगे बढ़ते चले जाते हैं।
परम प्रधान के देहधारण, के रूप में यीशु ने अपने जन्म के कुछ समय बाद ही आश्रम धर्म का पालन करना आरम्भ कर दिया था। उसने ऐसा कैसे किया, क्योंकि वह आश्रमों के लिए उपयुक्त तरीके से जीवन जीने के लिए हमें एक आदर्श प्रस्तुत करता है। हम ब्रह्मचर्य से आरम्भ करते हैं, जहाँ हमें उपनयन और विद्यारम्भम् संस्कार जैसे मील के पत्थर मिलते हैं।
एक ब्रह्मचारी के रूप में यीशु
विद्यार्थी के रूप में मिलने वाला आश्रम, ब्रह्मचर्य सबसे पहले आता है। इस अवधि में एक विद्यार्थी भविष्य में किए जाने वाले कामों के प्रति स्वयं के लिए शिक्षा प्राप्त करने और स्वयं की तैयारी के लिए ब्रह्मचर्य आश्रम में रहता है, जिनकी बाद में आने वाले आश्रमों में आवश्यकता होती है। यीशु ने आज के उपनयन संस्कार अर्थात् जनेऊ धारण करने के समान ही एक इब्रानी दीक्षा समारोह के माध्यम से ब्रह्मचर्य में प्रवेश किया था, यद्यपि उसने ऐसा कुछ भिन्न तरह से किया। सुसमाचार में उसके उपनयन संस्कार को इस तरह से लिपिबद्ध किया गया है।
यीशु का उपनयन संस्कार
22जब मूसा की व्यवस्था के अनुसार उनके शुद्ध होने के दिन पूरे हुए, तो वे उसे यरूशलेम में ले गए कि प्रभु के सामने लाएँ, 23 (जैसा कि प्रभु की व्यवस्था में लिखा है : “हर एक पहिलौठा प्रभु के लिये पवित्र ठहरेगा।”)
24और प्रभु की व्यवस्था के वचन के अनुसार : “पंडुकों का एक जोड़ा, या कबूतर के दो बच्चे” लाकर बलिदान करें।
25यरूशलेम में शमौन नामक एक मनुष्य था, और वह मनुष्य धर्मी और भक्त था; और इस्राएल की शान्ति की बाट जोह रहा था, और पवित्र आत्मा उस पर था।
26और पवित्र आत्मा द्वारा उस पर प्रगट हुआ था कि जब तक वह प्रभु के मसीह को देख न लेगा, तब तक मृत्यु को न देखेगा।
27वह आत्मा के सिखाने से मन्दिर में आया; और जब माता-पिता उस बालक यीशु को भीतर लाए, कि उसके लिये व्यवस्था की रीति के अनुसार करें,
28तो उसने उसे अपनी गोद में लिया और परमेश्वर का धन्यवाद करके कहा :
29“हे स्वामी, अब तू अपने दास को अपने वचन के अनुसार शान्ति से विदा करता है,
30क्योंकि मेरी आँखों ने ‘तेरे उद्धार’ को देख लिया है,
31जिसे तू ने सब देशों के लोगों के सामने तैयार किया है,
32कि वह अन्य ‘सभी जातियों’ को प्रकाश देने के लिये ‘ज्योति’, और तेरे निज लोग इस्राएल की महिमा हो।”
33उसका पिता और उसकी माता इन बातों से जो उसके विषय में कही जाती थीं, आश्चर्य करते थे।
34तब शमौन ने उनको आशीष देकर, उसकी माता मरियम से कहा, “देख, वह तो इस्राएल में बहुतों के गिरने, और उठने के लिये, और एक ऐसा चिह्न होने के लिये ठहराया गया है, जिसके विरोध में बातें की जाएँगी –
35वरन् तेरा प्राण भी तलवार से वार पार छिद जाएगा – इससे बहुत हृदयों के विचार प्रगट होंगे।”
36आशेर के गोत्र में से हन्नाह नामक फनूएल की बेटी एक भविष्यद्वक्तिन थी। वह बहुत बूढ़ी थी, और विवाह होने के बाद सात वर्ष अपने पति के साथ रह पाई थी।
37वह चौरासी वर्ष से विधवा थी : और मन्दिर को नहीं छोड़ती थी, पर उपवास और प्रार्थना कर करके रात-दिन उपासना किया करती थी।
38और वह उस घड़ी वहाँ आकर प्रभु का धन्यवाद करने लगी, और उन सभों से, जो यरूशलेम के छुटकारे की बाट जोहते थे, उस बालक के विषय में बातें करने लगी।
39जब वे प्रभु की व्यवस्था के अनुसार सब कुछ पूरा कर चुके तो गलील में अपने नगर नासरत को फिर चले गए।
40और बालक बढ़ता, और बलवन्त होता, और बुद्धि से परिपूर्ण होता गया; और परमेश्वर का अनुग्रह उस पर था।
लूका 2:22-40
आज कुछ उपनयन समारोहों में एक मंदिर में एक बकरे की बलि जढ़ाई जाती है। यह इब्रानी उपनयन समारोहों में भी एक सामान्य प्रथा थी, परन्तु मूसा की व्यवस्था ने निर्धन परिवारों को एक बकरे के स्थान पर कबूतरों को भेंट में दिए जाने की अनुमति प्रदान की। हम देखते हैं कि यीशु का पालन पोषण विनम्रतापूर्वक किया गया था क्योंकि उसके माता-पिता एक बकरे को बलि के लिए नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्होंने कबूतरों की भेंट चढ़ाई।
एक पवित्र ऋषि, शमौन, ने भविष्यवाणी की कि यीशु सभी भाषा के समूहों अर्थात् ‘सभी जातियों’ के लिए ’एक ज्योति’ और ‘उद्धार’ होगा। इसलिए यीशु आपके और मेरे लिए ‘उद्धार’ लाने वाली एक ‘ज्योति’ है, क्योंकि हम संसार में पाए जाने वाले भाषा समूहों में से एक हैं। हम इसे बाद में देखेंगे कि यीशु यह कैसे करता है।
परन्तु इस भूमिका को पूरा करने के लिए यीशु को ज्ञान और समझ में पहल करने की आवश्यकता थी। यह ठीक से पता नहीं चलता है कि उसके जीवन में विद्यारम्भम् दीक्षा संस्कार कब पूरा हुआ। परन्तु उसके परिवार ने ज्ञान, समझ और शिक्षा पर जोर दिया और इसे मूल्यवान माना है, जो स्पष्ट दिखाई देता है, क्योंकि 12 वर्ष की आयु में उसके ज्ञान के स्तर का एक छोटा सा चित्र प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पर उसका वृतान्त दिया गया है:
41 उसके माता-पिता प्रति वर्ष फसह के पर्व में यरूशलेम को जाया करते थे।
लूका 2:41-51
42 जब वह बारह वर्ष का हुआ, तो वे पर्व की रीति के अनुसार यरूशलेम को गए।
43 और जब वे उन दिनों को पूरा करके लौटने लगे, तो वह लड़का यीशु यरूशलेम में रह गया; और यह उसके माता-पिता नहीं जानते थे।
44 वे यह समझकर, कि वह और यात्रियों के साथ होगा, एक दिन का पड़ाव निकल गए: और उसे अपने कुटुम्बियों और जान-पहचानों में ढूंढ़ने लगे।
45 पर जब नहीं मिला, तो ढूंढ़ते-ढूंढ़ते यरूशलेम को फिर लौट गए।
46 और तीन दिन के बाद उन्होंने उसे मन्दिर में उपदेशकों के बीच में बैठे, उन की सुनते और उन से प्रश्न करते हुए पाया।
47 और जितने उस की सुन रहे थे, वे सब उस की समझ और उसके उत्तरों से चकित थे।
48 तब वे उसे देखकर चकित हुए और उस की माता ने उस से कहा; हे पुत्र, तू ने हम से क्यों ऐसा व्यवहार किया? देख, तेरा पिता और मैं कुढ़ते हुए तुझे ढूंढ़ते थे।
49 उस ने उन से कहा; तुम मुझे क्यों ढूंढ़ते थे? क्या नहीं जानते थे, कि मुझे अपने पिता के भवन में होना अवश्य है?
50 परन्तु जो बात उस ने उन से कही, उन्होंने उसे नहीं समझा।
51 तब वह उन के साथ गया, और नासरत में आया, और उन के वश में रहा; और उस की माता ने ये सब बातें अपने मन में रखीं॥
इब्रानी वेदों की पूर्ति
यीशु का बचपन और उसका विकास, उसकी बाद की सेवा के लिए तैयारी के रूप में था, जिसे ऋषि यशायाह ने पहले से ही देखा लिया जिन्होंने ऐसा लिखा है:
ऐतिहासिक समय-रेखा में यशायाह और अन्य इब्रानी ऋषि (भविष्यद्ववक्ता)
भी संकट-भरा अन्धकार जाता रहेगा। पहिले तो उसने जबूलून और नप्ताली के देशों का अपमान किया, परन्तु अन्तिम दिनों में ताल की ओर यरदन के पार की अन्यजातियों के गलील को महिमा देगा।
यशायाह 9:1, 6
2 जो लोग अन्धियारे में चल रहे थे उन्होंने बड़ा उजियाला देखा; और जो लोग घोर अन्धकार से भरे हुए मृत्यु के देश में रहते थे, उन पर ज्योति चमकी।
3 तू ने जाति को बढ़ाया, तू ने उसको बहुत आनन्द दिया; वे तेरे साम्हने कटनी के समय का सा आनन्द करते हैं, और ऐसे मगन हैं जैसे लोग लूट बांटने के समय मगन रहते हैं।
4 क्योंकि तू ने उसकी गर्दन पर के भारी जूए और उसके बहंगे के बांस, उस पर अंधेर करने वाले की लाठी, इन सभों को ऐसा तोड़ दिया है जेसे मिद्यानियों के दिन में किया था।
5 क्योंकि युद्ध में लड़ने वाले सिपाहियों के जूते और लोहू में लथड़े हुए कपड़े सब आग का कौर हो जाएंगे।
6 क्योंकि हमारे लिये एक बालक उत्पन्न हुआ, हमें एक पुत्र दिया गया है; और प्रभुता उसके कांधे पर होगी, और उसका नाम अद्भुत, युक्ति करने वाला, पराक्रमी परमेश्वर, अनन्तकाल का पिता, और शान्ति का राजकुमार रखा जाएगा।
यीशु द्वारा स्नान लेना
ब्रह्मचर्य पूर्ण होने को अक्सर स्नान या समावर्तन संस्कार द्वारा उत्सव के रुप में मनाया जाता है। यह सामान्य रुप से शिक्षकों और मेहमानों की उपस्थिति में एक अनुष्ठानिक स्नान द्वारा चिह्नित किया जाता है। यीशु ने यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के माध्यम से सामवर्त संस्कार के उत्सव के मनाया, जो बपतिस्मा नामक एक अनुष्ठान द्वारा लोगों को नदी में स्नान दिया करता था। मरकुस का सुसमाचार (बाइबल के चार सुसमाचारों में से एक) यीशु के वृतान्त को स्नान से ही आरम्भ करता है:
रमेश्वर के पुत्र यीशु मसीह के सुसमाचार का आरम्भ।
मरकुस 1:1-10
2 जैसे यशायाह भविष्यद्वक्ता की पुस्तक में लिखा है कि देख; मैं अपने दूत को तेरे आगे भेजता हूं, जो तेरे लिये मार्ग सुधारेगा।
3 जंगल में एक पुकारने वाले का शब्द सुनाई दे रहा है कि प्रभु का मार्ग तैयार करो, और उस की सड़कें सीधी करो।
4 यूहन्ना आया, जो जंगल में बपतिस्मा देता, और पापों की क्षमा के लिये मन फिराव के बपतिस्मा का प्रचार करता था।
5 और सारे यहूदिया देश के, और यरूशलेम के सब रहने वाले निकलकर उसके पास गए, और अपने पापों को मानकर यरदन नदी में उस से बपतिस्मा लिया।
6 यूहन्ना ऊंट के रोम का वस्त्र पहिने और अपनी कमर में चमड़े का पटुका बान्धे रहता था ओर टिड्डियाँ और वन मधु खाया करता था।
7 और यह प्रचार करता था, कि मेरे बाद वह आने वाला है, जो मुझ से शक्तिमान है; मैं इस योग्य नहीं कि झुक कर उसके जूतों का बन्ध खोलूं।
8 मैं ने तो तुम्हें पानी से बपतिस्मा दिया है पर वह तुम्हें पवित्र आत्मा से बपतिस्मा देगा॥
9 उन दिनों में यीशु ने गलील के नासरत से आकर, यरदन में यूहन्ना से बपतिस्मा लिया।
10 और जब वह पानी से निकलकर ऊपर आया, तो तुरन्त उस ने आकाश को खुलते और आत्मा को कबूतर की नाई अपने ऊपर उतरते देखा।
एक गृहस्थी के रूप में यीशु
सामान्य रूप से गृहस्थ, या गृहस्वामी, सम्बन्धी आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद में आता है, यद्यपि कुछ तपस्वी गृहस्थ आश्रम को छोड़ देते हैं और सीधे संन्यास आश्रम (त्याग) में चले जाते हैं। यीशु ने दोनों हो को नहीं लिया। उद्धार के अपने विशेष तरह के उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने गृहस्थ आश्रम को बाद में लेने के लिए स्थगित कर दिया। बाद में गृहस्थ आश्रम में वह अपने लिए एक दुल्हन और सन्तानों को लेगा, परन्तु एक भिन्न स्वभाव के। शारीरिक विवाह और सन्तान उसके रहस्यमयी विवाह और परिवार का प्रतीक हैं। जैसा कि बाइबल उसकी दुल्हन के बारे में बताती है:
आओ, हम आनन्दित और मगन हों, और उसकी स्तुति करें, क्योंकि ‘मेम्ने’ का विवाह आ पहुँचा है, और ‘उसकी दुल्हिन’ ने अपने आप को तैयार कर लिया है।
प्रकाशितवाक्य 19:7
अब्राहम और मूसा के साथ यीशु को ‘मेम्ना ’ कहा जाता था। यह मेम्ना एक दुल्हन से विवाह करेगा, परन्तु जब उसने ब्रह्मचर्य को पूरा किया तब तक वह तैयार नहीं हुई थी। वास्तव में, उसके जीवन का उद्देश्य उसे तैयार करना ही था। कुछ लोग अनुमान लगाते हैं कि क्योंकि यीशु ने गृहस्थ को स्थगित कर दिया था, इसलिए वह विवाह के विरूद्ध था। परन्तु संन्यासी के रूप में उसने जिस पहली गतिविधि में भाग लिया वह एक विवाह ही था।
एक वानप्रस्थी के रूप में यीशु
सन्तान को सामने लाने के लिए उसे सबसे पहले उसे यह करना था:
क्योंकि जिसके लिये सब कुछ है और जिसके द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुँचाए, तो उनके उद्धार के कर्ता को ‘दु:ख उठाने के द्वारा’ सिद्ध करे।
इब्रानियों 2:10
‘उनके उद्धार के कर्ता’ वाक्यांश यीशु को संदर्भित करता है, और इसलिए सन्तान के आने से पहले उसे ‘पीड़ा’ में से होकर जाना होगा। इसलिए, अपने बपतिस्मा में स्नान लिए जाने के बाद वह सीधे वानप्रस्थ (वन-वासी) आश्रम में चले गए, जहाँ उसने जंगल में रहते हुए परीक्षा से पीड़ा उठाई, जिसका वृतान्त यहाँ दिया गया है।
एक सन्यासी के रूप में यीशु
जंगल में वानप्रस्थ के तुरन्त बाद, यीशु ने सभी तरह संसारिक सम्बन्धों को त्याग दिया था और एक भ्रमण करने वाले शिक्षक के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया। यीशु का संन्यास आश्रम सबसे अधिक प्रसिद्ध है। सुसमाचारों ने उसके संन्यास का वर्णन इस तरह से किया है:
23 और यीशु सारे गलील में फिरता हुआ उन की सभाओं में उपदेश करता और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता, और लोगों की हर प्रकार की बीमारी और दुर्बल्ता को दूर करता रहा।
मत्ती 4:23
इस समय के दौरान उसने अधिकांश एक गांव से दूसरे गांव तक की यात्रा की, यहाँ तक कि अपने इब्रानी/यहूदी लोगों से बाहर के गांवों की भी। उसने अपने संन्यासी जीवन का वर्णन इस प्रकार किया है:
18 यीशु ने अपनी चारों ओर एक बड़ी भीड़ देखकर उस पार जाने की आज्ञा दी।
मत्ती 8:18-20
19 और एक शास्त्री ने पास आकर उस से कहा, हे गुरू, जहां कहीं तू जाएगा, मैं तेरे पीछे पीछे हो लूंगा।
20 यीशु ने उस से कहा, लोमडिय़ों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन्तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।
वह, मनुष्य का पुत्र था, जिसके पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं थी, और उसके पीछे चलने वालों को भी यही आशा करनी चाहिए। सुसमाचारों में यह भी बताया गया है कि कैसे उसका संन्यासी जीवन आर्थिक रूप से समर्थित था।
स के बाद वह नगर नगर और गांव गांव प्रचार करता हुआ, और परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाता हुआ, फिरने लगा।
लूका 8:1-3
2 और वे बारह उसके साथ थे: और कितनी स्त्रियां भी जो दुष्टात्माओं से और बीमारियों से छुड़ाई गई थीं, और वे यह हैं, मरियम जो मगदलीनी कहलाती थी, जिस में से सात दुष्टात्माएं निकली थीं।
3 और हेरोदेस के भण्डारी खोजा की पत्नी योअन्ना और सूसन्नाह और बहुत सी और स्त्रियां: ये तो अपनी सम्पत्ति से उस की सेवा करती थीं॥
संन्यासी को सामान्य रूप से एक लाठी के साथ भ्रमण करता हुआ चिह्नित किया जाता है। यीशु ने अपने शिष्यों को यही शिक्षा दी जब वह अपने पीछे चलने वालों को मार्गदर्शन दे रहा था। उसके निर्देश ये थे:
6 और उस ने उन के अविश्वास पर आश्चर्य किया और चारों ओर के गावों में उपदेश करता फिरा॥
मरकुस 6:6-10
7 और वह बारहों को अपने पास बुलाकर उन्हें दो दो करके भेजने लगा; और उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया।
8 और उस ने उन्हें आज्ञा दी, कि मार्ग के लिये लाठी छोड़ और कुछ न लो; न तो रोटी, न झोली, न पटुके में पैसे।
9 परन्तु जूतियां पहिनो और दो दो कुरते न पहिनो।
10 और उस ने उन से कहा; जहां कहीं तुम किसी घर में उतरो तो जब तक वहां से विदा न हो, तब तक उसी में ठहरे रहो।
इतिहास में यीशु का संन्यास आश्रम परिवर्तन के लिए एक महत्वपूर्ण बिन्दु था। इस अवधि में वह एक ऐसा गुरु बन गया, जिसकी शिक्षाओं ने संसार के कई शक्तिशाली लोगों को प्रभावित किया (जैसे महात्मा गांधी), और उसने आपको, मुझे और सभी लोगों को स्पष्टता प्रदान करते हुए अंतर्दृष्टि प्रदान की है। हम जीवन के मार्गदर्शन, शिक्षण और उपहार की शिक्षा पाते हैं, जिसे उसने अपने संन्यास आश्रम के दौरान बाद में सभी को दी, परन्तु सबसे पहले हम यूहन्ना की शिक्षा को देखते हैं (जिसने स्नान संस्कार का संचालन किया था)।