आप, मैं, और बाकी की मानवजाति ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जो माया, पाप और मृत्यु से लिपटा हुआ है। मानव इतिहास के आरम्भ से, विचारक, ऋषि और भविष्यद्वक्ताओं ने हमारी मानवीय परिस्थिति के ऊपर चिन्तन किया है और इस अस्तित्व से बचने के लिए मार्ग प्राप्त करने का प्रयास किया है। अधिकांश पवित्र साहित्य इन प्रश्नों को लेकर आरम्भ के समय से इन पवित्र लोगों के द्वारा लिखे गए हैं। भारतीय उपमहाद्वीप से, लगभग ईसा पूर्व 2000-1000 वर्षों के मध्य में लिखे हुए ऋग्वेद सबसे आरम्भिक पवित्र लेख हैं। ऋग्वेद के पवित्र भजन परमेश्वर की खोज और माया, पाप और मृत्यु के हमारे इस चक्र से मोक्ष अर्थात् उद्धार की गम्भीर खोज को प्रगट करते हैं।
उपनिषद् की प्रार्थना
उपनिषद् (वेदों के पश्चात् ईसा पूर्व 800 में लिखा हुए पवित्र साहित्य) की एक जानी-पहचानी प्रार्थना इस खोज को उद्धृत करती है। इसका संस्कृत में और इसका हिन्दी भाषान्तरण यहाँ नीचे दिया गया है
संस्कृति में | हिन्दी भाषातंरण |
असतोमासद् गमय। तमसोमाज्योतिर्गमय। मृत्योर्माअमृतम्गमय। | मुझेअसत्यसेसत्यकी ओर ले चल। मुझे अन्धकार से ज्योति की ओर ले चल। मुझे मृत्यु से जीवन की ओर ले चल। |
मृत्योर्मा अमृतम् गमय। मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चल। मुझे अन्धकार से ज्योति की ओर ले चल। मुझे मृत्यु से जीवन की ओर ले चल।
सभी संस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों को एक तरफ करते हुए, यह प्रार्थना अमरता के मार्ग को जानने की मानवीय इच्छा को व्यक्त करती है।
प्रतिज्ञा: प्रार्थना का उत्तर आ रहा है
जब भारतीय उपमहाद्वीप में रचित उपनिषदों में संस्कृत भाषा में यह प्रार्थना लिखे जाने के समय के आस पास ही, ज्ञान से भरा हुआ एक ईश्वरीय सन्देश मध्य पूर्व के द्वीपों में सामी इब्रानी में यशायाह नाम के इस्राएली ऋषि या भविष्यद्वक्ता को दिया गया। जब आप इसे पढ़ते हैं तो आप ध्यान देंगे कि यह प्रतिज्ञाएँ उपरोक्त उपनिषद् की प्रार्थना के उत्तर में परमेश्वर के द्वारा दी गई हैं।
“मुझ यहोवा ने तुझको धर्म से बुला लिया है;
मैं तेरा हाथ थाम कर तेरी रक्षा करूँगा।
मैं तुझे प्रजा के लिये वाचा
और जातियों के लिये प्रकाश ठहराऊँगा,
कि तू अंधों की आँखें खोले
बन्दियों को बन्दीगृह से निकाले
और जो अन्धियारे में बैठे हैं
उनको कालकोठरी से निकाले।
मैं अन्धों को एक मार्ग से ले चलूँगा जिसे वे नहीं जानते
और उनको ऐसे पथों से चलाऊँगा जिन्हें वे नहीं जानते;
उनके आगे मैं अन्धियारे को उजियाला करूँगा
और टेढ़े मार्गों को सीधा करूँगा।
मैं ऐसे ऐसे काम करूँगा
और उनको न त्यागूँगा।
जो लोग अन्धियारे में चल रहे थे
उन्होंने बड़ा उजियाला देखा;
और जो लोग घोर अन्धकार से भरे हुए मृत्यु के देश में रहते थे,
उन पर ज्योति चमकी।” यशायाह 42:6-7, 16, 9:2
सैकड़ों वर्षों पहले लिखी गई उपनिषद् की ये प्रार्थनाएँ और यशायाह के ये ईश्वरीय सन्देश ने संसार को उस बात से उलट पुलट कर दिया जिसे शुभ सन्देश कह कर पुकारा जाता है। इस समाचार ने उस समय के संसार को और आज के हमारे जीवनों को परिवर्तित कर दिया है, चाहे हम इसे जानते हैं या नहीं, परन्तु इस समाचार से हम मूल रूप से प्रभावित हुए हैं। इसने पुस्तकों के आविष्कार (कुण्डल पत्रों के विपरीत) को मार्गदर्शन दिया है, दो शब्दों के मध्य रिक्त स्थान, विराम चिन्हों, शब्दों के ऊपर और नीचे लिखे जाने के ढाँचे को, महाविद्यालयों, अस्पतालों और यहाँ तक अनाथालय जिन्हें लोगों के द्वारा तब स्थापित किया गया जब उन्होंने यह समझ लिया था कि कैसे शुभ सन्देश को समाज को प्रभावित करना चाहिए। परन्तु इससे भी अधिक मौलिक, इस समाचार के आगमन ने लोगों के स्वयं को, अन्यों को, जीवन, मृत्यु और परमेश्वर के अमरत्व को देखने के दृष्टिकोण को ही बड़ी गहनता से परिवर्तित कर दिया। इस शुभ सन्देश को सुसमाचार के नाम से जाना गया, और उस युग से लेकर आज तक इसने कइयों के हृदयों और मनों की निष्ठा को प्राप्त कर लिया है, अक्षरश: क्योंकि सत्य, स्वतंत्रता और अमरता के लिए हमारी मौलिक आवश्यकता के उत्तरों को देती है।
सुसमाचार का सन्देश नासरत के यीशु नामक व्यक्ति के ऊपर केन्द्रित है। उसने परमेश्वर के मानवीय देहधारण होने का दावा किया (और हमने उसके दावों को इस साईट में देख लिया है) जो सत्य, स्वतन्त्रता और अमरता की हमारी आवश्यकता को पूरा कर सकता है।
मैंने इस वेबसाईट को उन सभी रूचि रखनेवाले लोगों के लिए इस शुभ सन्देश के ऊपर, ऋग्वेद के दृष्टिकोण के साथ साथ, बाइबल के दृष्टिकोण से भी विचार करने के लिए एक अवसर प्रदान करने के लिए निर्मित किया है। जब बाइबल को सबसे पहले हिन्दी भाषान्तरित किया गया तो इसे ‘वेद पुस्तक’ या ‘सर्वोच्च ज्ञान की पुस्तक’ की पुस्तक कह कर पुकारा गया था। यह दोनों वेद अमरत्व के पथ को दिखाने की प्रतिज्ञा करते हैं। निश्चित ही इस पर विचार करना लाभप्रद है। मैं आपको इन दोनों वेदों से सुसमाचार के ऊपर विचार करने के लिए निमंत्रण देता हूँ।